सत्यवान सावित्री की कथा Story of Satyavan Savitri

सत्यवान सावित्री की कथा Story of Satyavan Savitri

 

सत्यवान सावित्री की कथा Story of Satyavan Savitri

प्राचीन युग की बात है । भारतवर्ष के मद्र देश में ( जो आजकल दक्षिणी कश्मीर है ) अश्वपति नाम के राजा राज्य करते थे । इनके कोई संतान न थी । ज्यों – ज्यो अवस्था बीतती गई. इन्हें संतान न होने से चिंता हुई । ज्योतिषियों ने इनकी जन्मकुण्डली देखकर बताया कि आपके ग्रह बता रहे हैं कि आपके संतान होगी, इसके लिए आप सावित्री देवी की पूजा कीजिए । राजा अश्वपति राज्य छोड़कर वन चले गए । अट्ठारह वर्ष तक उन्होंने तपस्या की तो उन्हें कन्या की प्राप्ति हुई । उसका नाम उन्होंने सावित्री रखा ।
सावित्री अदवितीय सुंदरी थी । उसकी सुंदरता और गुण की प्रशंसा दूर – दूर तक फैलने लगी । ज्यों – ज्यों सावित्री बड़ी होने लगी, उनका रूप निखरने लगा । पिता को उसके विवाह की भी चिंता होने लगी । अश्वपति चाहते थे कि उसी के अनुरूप पति भी मिले, किंतु कोई मिलता न था ।
सावित्री का चित्त बहलाने के लिए अश्वपति ने उसे तीर्थ – यात्रा के लिए भेज दिया और उसे आज्ञा दी कि तुझे वर चुन लेने की स्वतंत्रता देता हूँ । सावित्री का रथ जा रहा था कि उसे एक अद्भुत स्थान दिखाई दिया । अनेक सुंदर वृक्ष थे. चारों ओर हरियाली थी । वहीं एक युवक घोड़े के बच्चे के साथ खेल रहा था । उसके सिर पर जटा बंधी थी । छाल पहने हुए था । मुख पर तेज था । सावित्री ने देखा और मंत्री से कहा कि आज यहीं विश्राम करना चाहिए । रथ जब ठहरा, वह युवक परिचय पाने के लिए उनके पास आया । उसे जब पता लगा कि वह राजकुमारी है, बड़े सम्मान से अपने पिता के आश्रम में ले गया । उसने यह भी बताया कि मेरे माता – पिता दृष्टिहीन हैं । मेरे पिता किसी समय शाल्व देश के राजा थे । वह इस समय यहाँ तपस्या कर रहे हैं । मेरा नाम सत्यवान है ।
दूसरे दिन सावित्री घर लौट गई । बड़ी लज्जा तथा शालीनता से उन्होंने सत्यवान से विवाह करने की अनुमति माँगी । अश्वपति इससे बहुत प्रसन्न हुए कि सावित्री को उसके अनुरूप वर मिल गया, किंतु बाद में पता चला कि सत्यवान की आयु बहुत कम है, वह एक साल से अधिक जीवित नहीं रहेगा । इससे सावित्री के पिता को बहुत दुःख हुआ । उन्होंने सावित्री को सब प्रकार समझाया कि ऐसा विवाह करना जन्म भर के लिए दुःख मोल लेना है । सावित्री ने कहा, ” पिता जी, मुझे इस सम्बन्ध में आपसे कुछ कहते हुए संकोच का अनुभव हो रहा है । मैं विनम्रता के साथ यह निवेदन करना चाहती हूँ कि आपने मुझे वर चुनने की स्वतंत्रता दी थी । मैंने सत्यवान को चुन लिया । उससे हटना आदर्श से हटना होगा और युग – युग के लिए अपने तथा अपने परिवार के ऊपर कलंक लगाना होगा । “
अश्वपति निरुत्तर हो गए । उन्होंने विद्वानों को बुलाकर विचार किया । अन्त में राजा अश्वपति सावित्री तथा और लोगों को साथ लेकर सत्यवान के पिता के आश्रम में विवाह करने के लिए पहुंचे । उन्होंने सत्यवान के पिता दयुमत्सेन के सामने सावित्री के विवाह का प्रस्ताव रखा । युमत्सेन ने पहले तो अस्वीकार कर दिया । वह बोले, ” महाराज, मैं दरिद्र हूँ । तपस्या कर रहा हूँ, यद्यपि किसी समय राजा था, किंतु अब तो कंगाल हूँ । राजकुमारी को किस प्रकार अपने यहाँ रख सकूँगा? “
वन में दोनों का विवाह हो गया । अश्वपति बहुत सा धन, अलंकार आदि दे रहे थे ।
विवाह के पश्चात् सावित्री वहीं आश्रम में रहने लगीं । उन्होंने अपने सास – ससुर तथा पति सत्यवान की सेवा मेंअपना मन लगा दिया । सत्यवान और सावित्री सदा लोक कल्याण तथा उपकार की बातें करते थे ।
सावित्री दिन भर घर का काम – काज करती थीं । जब उन्हें अवकाश मिलता था वह भगवान से बड़ी लगन के साथ प्रार्थना करती थीं कि मेरे पति दीर्घायु हों । ज्यों – ज्यों समय निकट आता गया उनकी चिंता बढ़ती गई । जब सत्यवान के जीवन के तीन दिन शेष रह गए, सावित्री ने भोजन भी छोड़ दिया और दिन – रात प्रार्थना करने लगीं । लोग भोजन करने के लिए समझाते किंतु वह सबका अनुरोध टालती रहीं । तीसरे दिन जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने जा रहे थे, सावित्री भी उनके साथ चलीं । सत्यवान ने समझाया कि तुम तीन दिन से व्रती हो, तुम न चलो किंतु वह नहीं मानीं और सत्यवान के साथ वन को चली गईं । सत्यवान एक पेड़ पर लकड़ी काटने
सावित्री यमराज से अपने पति के प्राण माँग रही है के लिए चढ़ गए । थोड़ी देर में उन्होंने बहुत सी लकड़ी काटकर गिरा दी । सावित्री ने कहा, ” अब लकड़ी है, उतर आइए । ” सत्यवान पेड़ से उतरे । उन्होंने कहा, ” मेरे सिर में चक्कर आ रहा है । ” सत्यवान धीरे होश होने लगे और कुछ ही क्षण में उनके प्राण – पखेरू उड़ गए ।
यद्यपि सावित्री जानती थीं फिर भी जब उन्होंने अपने पति को निष्प्राण देखा, वह विलाप करने लगी।इ मय उन्हें ऐसा जान पड़ा कि कोई भयानक किंतु तेजपूर्ण परछाईं उनके सामने खड़ी है । उसे देखकर साधि यभीत हो गई, न जाने कहाँ से उनमें बोलने का साहस आ गया । उन्होंने कहा, ” प्रभो, आप कौन हैं? ” उसने
कहा, ” मैं यमराज हूँ । मुझे लोग धर्मराज भी कहते हैं । मैं तुम्हारे पति के प्राण लेने के लिए आया हु आपके पति की आयु पूरी हो गई हैं । मैं उनके प्राण लेकर जा रहा हूँ । ” इतना कहकर यमराज सत्यवान
के  चलने लगे । सत्यवान का शरीर धरती पर पड़ा रहा । सावित्री भी यमराज के पीछे – पीछे चलने लगी।
 थोड़ी देर बाद यमराज ने मुड़कर पीछे देखा तो सावित्री भी चली आ रही है । यमराज ने कहा- ” सावित्री, तुम कहाँ चली आ रही हो? जिसकी आयु शेष है, वह हमारे साथ नहीं आ सकता । लौट जाओ । ” इतना कहकर यमराज आगे बढ़े । कुछ देर बाद यमराज ने फिर मुड़कर देखा तो सावित्री चली आ रही हैं । यमराज ने कहा, ” तुम क्यों मेरे पीछे आ रही हो? ” सावित्री बोली, “ महाराज, मैं अपने पति को कैसे छोड़ सकती हूँ? ” यमराज ने कहा, ‘ जो ईश्वर का नियम है, वह नहीं टल सकता । तुम चाहो तो कोई वरदान मुझसे माँग लो । सत्यवान का जीवन छोड़कर और जो माँगना हो माँगो और चली जाओ । ” सावित्री ने बहुत सोचकर कहा,
 ” मेरे सास और ससुर देखने लगें और उन्हें उनका राज्य मिल जाए । ” यमराज ने कहा, ” ऐसा ही होगा । “
 थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा कि सावित्री फिर पीछे – पीछे आ रही हैं । यमराज ने सावित्री को बहुत समझाया और कहा, “ अच्छा, एक वरदान और माँग लो । ‘ सावित्री ने कहा, ” मेरे पिता की संतान प्राप्त हो जाए । ” यमराज ने यह वरदान भी दे दिया और आगे बढ़े । कुछ दूर जाने पर यह जानने के लिए कि सावित्री गई, उन्होंने पीछे गर्दन मोड़ी । देखा, सावित्री चली आ रही हैं । उन्होंने कहा, ” सावित्री! तुम क्यों चली आ रही हो? ऐसा कभी नहीं हुआ कि कोई व्यक्ति सशरीर मेरे साथ जा सके । इसलिए तुम लौट जाओ । ” सावित्री ने कहा, ” मैं इन्हें छोड़कर नहीं जा सकती, शरीर का त्याग कर सकती हूँ । “
 यमराज चकराये कि यह कैसी स्त्री है, इतनी दृढ़ । कोई बात ही नहीं मानती । पता नहीं, क्या करना चाहती है? उन्होंने कहा, ” अच्छा, एक वरदान मुझसे और माँग लो और मेरा कहना मानो । भगवान की जो आज्ञा है, उसके विरुद्ध लड़ना बेकार है । ‘ ‘ सावित्री ने कहा, ” महाराज, आप यदि वरदान ही देना चाहते हैं तो यह वरदान दीजिए कि मुझे संतान प्राप्त हो जाए । ” यमराज ने कहा, “ ऐसा ही होगा । ” यमराज आगे बढ़े किंतु कुछ ही दूरी पर उन्हें ऐसा लगा कि वह लौटी नहीं । यमराज को क्रोध आ गया । उन्होंने कहा, ‘ तुम मेरा कहना नई मानती हो । ‘ सावित्री ने कहा, ” धर्मराज! आप मुझे संतान प्राप्ति का आशीर्वाद दे चुके हैं और मेरे पति को अप साथ लिए जा रहे हैं । यह कैसे संभव है? “
 यमराज को अब ध्यान आया । उन्होंने सत्यवान के प्राण छोड़ दिए और सावित्री की दृढ़ता और धर्म प्रशंसा करते हुए चले गए । इधर सावित्री उस पेड़ के पास पहुंची, जहाँ सत्यवान का शरीर पड़ा था ।
 सावित्री ने अपनी दृढ़ता तथा तपस्या के बल से असम्भव बात सम्भव बना दी । तप और दृढ़ता में इ बल होता है कि उसके आगे देवताओं को भी झुक जाना होता है । इसी कारण सावित्री हमारे देश की ना में सिरमौर हो गई और आज तक वह हमारा आदर्श बनी हैं ।
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